अजब नहीं है

अजब नहीं है-
कि बिन तुम्हारे,
वो लफ्ज़ सारे
जो मेरे पन्नों पे सो रहे हैं,
कि जैसे चहरे को तुमने फेरा,
ऐसे करवट बदल रहे हैं..

अजब नहीं है-
वो शेर सारे,
जो थे हमारे,
हमारी भीगी क़लम मे ऐसे समा गए हैं,
कि जैसे हद्द से गुज़र रहे हो,
ये कोरे पन्नों पे बह रहे हो।

अजब नहीं है-
कहा था तुमने
“कि सोहेल सुन लो
बता रही हूँ..
जो मेरे मुह से टपक रहा है
वो ख़ून ए दिल की ही आदतें है
ये सब तुम्हारी इनायतें है ..
ये सारी मेरी शिकायतें है..
ये जोश-ए-ख़ून-ए-नदामतें है..
इसीलिए मैं ख़फ़ा हूँ तुम से
इसीलिए मैं ये कह रही हूँ
कि जो भी नज़्में लिखे हो तुमने
तुम्हारी नज़्में नहीं पढ़ूँगी”

अजब नहीं है –
जो खूँ थूकन मे
तुम्हारा ख़ून-ए-जिगर बहा था
वो ही तो ख़ून-ए-जिगर को मैंने
मेरी ईन आँखों पे जब मला था
अभी भी लगता है जैसे आँखे
वो ताज़ा खूँ फिर बहा रही हो
अभी भी लगता है जैसे लब पर
ख़फ़ा ख़फ़ा सी अदा रही हो

लहू थूकन की जो थी अदाएं
हर एक बूँदों में थी वफ़ाएं
मगर वफ़ाओं से क्या हुआ है
मगर अदाओं से क्या हुआ है

सुनो मगर अब
हुआ तुम्हारा?
कहूँ क्या मैं कुछ?
वो बात क्या थी?
कि नज़्म मेरी नहीं पढ़ोगी?
अगर यह सच है तो फिर यह सुन लो,
कि लग रहा है,
तुम पढ़ रही हो,
तड़प रही हो,
सुलग रही हो,
सिमट रही हो!

मगर अब मैंने..
तो बाद मुद्दत के नज़्म लिक्खा हूँ जैसे तैसे
कहीं किसी दिन तुम्हारे ख़्वाबों में नज़्म गाऊँ,
तो ये मत कहना –
“मुझे नहीं कोई नज़्म सुनना”

“तुम अपनी नज़्में भी लेके जाओ,
तुम अपनी ग़ज़लें भी लेके जाओ,
अगर मुझे भूल जाना चाहो,
तो सारी क़समें भी लेके जाओ”

अजब नहीं है-
ये सारी नज़्में,
ये सारी ग़ज़लें,
जो मैंने पन्नों पर है उतारा,
ये पन्ने चाहे कि देखे तुमको,
कि तुम मे ऐसी भी क्या कशिश हैं।
ये पन्ने चाहे पता लगाना,
कि कौन हो तुम?
जो इतने दिलकश है लब तुम्हारे,
बताओ भी क्या है नाम तुम्हारा,
इन्हें बता दूँ अगर तो फिर ये,
दीवाने पागल ना जी सकेंगे
इन्हें बताना नहीं मुनासिब,
ये बे-ख़बर हो तभी सही है,
कि नाम भी अब कहीं नहीं है।

अजब नहीं है-
वो भीगे पन्नों पे,
ना लिखा था,
जो नाम अब तक,
वो नाम अब मैं,
छुपा छुपा कर रखूँगा कब तक?
मुझे ये लगता है कि अब तो,
तुम्हारा वक़्त भी गुज़र चुका है,
ये पानी सर से उतर चुका है।
ना कोई ख़्वाहिश कि तुम अब आओ,
ना कोई हसरत ना आरज़ू है,
ना कोई हिम्मत बची है हम में,
ना कोई साथी ना गुफ़्तगू है।

अजब नहीं है-
यह पन्ने कह दें,
जो कुछ भी लिक्खा है, बस भी कर दो,
लिखोगे कितना बताओ सोहेल,
अब तुम ही बोलो मैं क्या बताऊँ,
ये मेरी बातों से बे-ख़बर है,
ये मेरे लफ़्ज़ों का ही असर है,

अजब नहीं है-
मगर ये सुन लो.. बता रहा हूँ,
जो मेरे लफ़्ज़ों से मो’अतबर थे,
वो ही तो तुम थे,
वो ही तो तुम थे,
वो ही तो तुम थे।


Nazm by Shaikh Sohail

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