मुझे लगता है कि तुम हो

कहीं पे चाँद आ चमके,
मुझे लगता है कि तुम हो।
कहीं पे तारे जब दमके,
मुझे लगता है कि तुम हो।

कहीं बारिश की घटा हो,
कहीं गुमसुम सी फ़ज़ा हो,
कहीं आँखों का मिलन हो,
कहीं रुखसार की वाह हो।
कोई फ़ुर्क़त से मिला हो,
वो नज़र कैसी हो क्या हो।
मुझे लगता है कि तुम हो।

मेरे आँगन के किनारे
कोई एक फूल जब महके,
मेरी हर रात जिस की याद मे
आरज़ू कह के,
कहीं हो ख़ुर सा रौशन,
कहीं वो अक्स-ए-हिना हो
मुझे लगता है कि तुम हो।

तुम्हारें नाम का हमनाम,
कहीं कुछ देर ठहरा हो
तुम्हारी तरह कोई शख़्स,
किसी कोने में बैठा हो,
कहीं आँखों में पानी हो,
कहीं दरिया भी सूखा हो,
कहीं फूलों के गुलशन मे,
कोई चिड़िया सा चहका हो।
किसी गुम-नाम से रस्ते,
कोई आवाज़ बुलवाएं,
किसी दोशीज़ा की ख़ुशबू,
मुलाक़ात मुझ से करवाएं,
किसी शब मे किसी दिन के,
त’अल्लुक़ मुझ से हो जाए,
कहीं दिलकश लबों से,
फिर कोई दो बात सुलझाएं
कहीं आँचल मे हो पहलु,
कहीं पैरों में पायल हो,
मुझे लगता है कि तुम हो।

कहाँ यह बात तुम संग हो,
कहाँ यह रात तुम संग हो,
कहाँ सोहेल भी चाहे,
कि मुलाक़ात तुम संग हो,

कहाँ हो सोहेल की नज़्में,
कहाँ हो उन का माह-चेहरा,
कि जैसे एक तिल बैठा,
दिए रुख़सार पर पहरा,
करम हो ‘सोहेल’ ख़स्ता पर,
कि मैं हूँ अदना सा शायर,
मगर जब शेर सुनकर
कोई मुझ पर
दाद देता हो,
मुझे लगता है कि तुम हो।


Nazm by Shaikh Sohail

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